जय जगन्नाथ.
श्रीकृष्ण अपने परम भक्त राज इन्द्रद्युम्न के सपने में आये और उन्हे
आदेश दिया कि पुरी के दरिया किनारे पर पडे एक पेड़ के तने में से वे
श्री कृष्ण का विग्रह बनायें। राज ने इस कार्य के लिये काबिल बढ़ई की
तलाश शुरु की। कुछ दिनो बाद एक रहस्यमय बूढा ब्राह्मण आया और
उसने कहा कि प्रभु का विग्रह बनाने
की जिम्मेदारी वो लेना चाहता है। लेकिन
उसकी एक शर्त थी - कि वो विग्रह बन्द कमरे में बनायेगा और उसका
काम खत्म होने तक कोई भी कमरे का दरवाजा नहीं खोलेगा, नहीं तो
वो काम अधूरा छोड़ कर चला जायेगा। ६-७ दिन बाद काम करने की
आवाज़ आनी बन्द हो गयी तो राजा से रहा न गया और ये सोचते हुए
कि ब्राह्मण को कुछ हो गया होगा, उसने दरवाजा खोल दिया। पर अन्दर
तो सिर्फ़ भगवान का अधूरा विग्रह ही मिला और बूढा ब्राह्मण गायब हो
चुका था। तब राजा को एहसास हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं बल्कि
देवों का वास्तुकार विश्वकर्मा था। राजा को आघात हो गया क्योंकि
विग्रह के हाथ
और पैर नहीं थे, और वह पछतावा करने
लगा कि उसने दरवाजा क्यों खोला। पर
तभी वहाँ पर ब्राह्मण के रूप में नारद मुनि पधारे और उन्होंने राजा से
कहा कि भगवान
इसी स्वरूप में अवतरित होना चाहते थे और
दरवाजा खोलने का विचार स्वयं श्री कृष्ण ने राजा के दिमाग में डाला
था। इसलिये उसे आघात महसूस करने का कोइ कारण नहीं है और वह
निश्चिन्त हो जाये क्योंकि सब श्री कृष्ण की इच्छा ही है।
पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ
जी की रथयात्रा दक्षिण भारतीय उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे
पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान
श्री जगन्नाथ
जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ
जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और
श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी
प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से संपूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री
जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है
और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य
महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है।
पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल
द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरंभ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान
पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों,
लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं।
रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर
श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर
माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अंत में गरुण ध्वज पर या नंदीघोष
नाम के रथ पर
श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ ६५ फीट लंबा, ६५
फीट चौड़ा और ४५ फीट ऊँचा है। इसमें ७ फीट व्यास के १७ पहिये
लगे हैं। बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन
जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं। संध्या तक ये तीनों ही रथ मंदिर
में जा पहुँचते हैं। अगले दिन भगवान रथ से
उतर कर मंदिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं। गुंडीचा
मंदिर में इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन
कहा जाता है।
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