Sunday, October 6, 2013

माता ब्रह्मचारिणी द्वितीयं रूप



माता ब्रह्मचारिणी द्वितीयं रूप

माँ दुर्गा की नवशक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। यहाँ ब्रह्म शब्द का अर्थ तपस्या है। ब्रह्मचारिणी अर्थात तप की चारिणी–तप का आचरण करने वाली। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल है। अपने पूर्व जन्म में जब ये हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं, तब नारद के उपदेश से इन्होंने भगवान शंकरजी को प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या की थी। इसी दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। इन्होंने एक हज़ार वर्ष तक केवल फल खाकर व्यतीत किए औए सौ वर्ष तक केवल शाक पर निर्भर रहीं। उपवास के समय खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के विकट कष्ट सहे, इसके बाद में केवल ज़मीन पर टूट कर गिरे बेलपत्रों को खाकर तीन हज़ार वर्ष तक भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। कई हज़ार वर्षों तक वह निर्जल और निराहार रह कर व्रत करती रहीं। पत्तों को भी छोड़ देने के कारण उनका नाम 'अपर्णा' भी पड़ा। इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का पूर्वजन्म का शरीर एकदम क्षीण हो गया था। उनकी यह दशा देखकर उनकी माता मैना देवी अत्यन्त दुखी हो गयीं। उन्होंने उस कठिन तपस्या विरत करने के लिए उन्हें आवाज़ दी उमा, अरे नहीं। तब से देवी ब्रह्मचारिणी का पूर्वजन्म का एक नाम 'उमा' पड़ गया था। उनकी इस तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया था। देवता, ॠषि, सिद्धगण, मुनि सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व पुण्यकृत्य बताते हुए उनकी सराहना करने लगे। अन्त में पितामह ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें सम्बोधित करते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा- 'हे देवी । आज तक किसी ने इस प्रकार की ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी। तुम्हारी मनोकामना सर्वतोभावेन पूर्ण होगी। भगवान चन्द्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तुम तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ।'

माँ दुर्गा का यह दूसरा स्वरूप भक्तों को अनन्त फल देने वाला है । इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार व संयम की वृद्धि होती है। सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्त्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता। माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है।

ध्यान
वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
जपमाला कमण्डलु धरा ब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालंकार भूषिताम्॥
परम वंदना पल्लवराधरां कांत कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ
तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥

कवच
त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातु मध्यदेशे पातु महेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।


नवरात्रि की प्रथम देवी शैलपुत्री



नवरात्रि की प्रथम देवी शैलपुत्री


वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम्‌ । 
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्‌ ॥

नवरात्रि के पावन पर्व के मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-उपासना बहुत ही विधि-विधान से की जाती है। इन रूपों के पीछे तात्विक अवधारणाओं का परिज्ञान धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है। 

मां दुर्गा को सर्वप्रथम शैलपुत्री के रूप में पूजा जाता है। हिमालय के वहां पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण उनका नामकरण हुआ शैलपुत्री। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। 

इस देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। यही देवी प्रथम दुर्गा हैं। ये ही सती के नाम से भी जानी जाती हैं। उनकी एक मार्मिक कहानी है। 

एक बार जब प्रजापति ने यज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया, भगवान शंकर को नहीं। सती यज्ञ में जाने के लिए व्याकुल हो उठीं। शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है, उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है। 

सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुंचीं तो सिर्फ मां ने ही उन्हें स्नेह दिया। 
बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे। भगवान शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव है। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे। इससे सती को क्लेश पहुंचा। 

वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा अपने को जलाकर भस्म कर लिया। इस दारुण दुःख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाईं। 

पार्वती और हेमवती भी इसी देवी के अन्य नाम हैं। शैलपुत्री का विवाह भी भगवान शंकर से हुआ। शैलपुत्री शिवजी की अर्द्धांगिनी बनीं। इनका महत्व और शक्ति अनंत है।

माँ भवानी के समस्त भक्तगण को नवरात्री की हार्धिक शुब्कामनाए


Monday, July 15, 2013


समस्त विद्याओं की भण्डागार-गायत्री महाशक्ति
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ॐ र्भूभुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्

गायत्री संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की आदि जननी है । वेदों को समस्त प्रकार की विद्याओं का भण्डार माना जाता है, वे वेद गायत्री की व्याख्या मात्र हैं । गायत्री को 'वेदमाता' कहा गया है । चारों वेद गायत्री के पुत्र हैं । ब्रह्माजी ने अपने एक-एक मुख से गायत्री के एक-एक चरण की व्याख्या करके चार वेदों को प्रकट किया ।

'ॐ भूर्भवः स्वः' से-ऋग्वेद,
'तत्सवितुर्वरेण्यं' से-यर्जुवेद,
'भर्गोदेवस्य धीमहि' से-सामवेद और
'धियो योनः प्रचोदयात्' से अथर्ववेद की रचना हुई ।

इन वेदों से शास्त्र, दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, सूत्र, उपनिषद्, पुराण, स्मृति आदि का निर्माण हुआ । इन्हीं ग्रन्थों से शिल्प, वाणिज्य, शिक्षा, रसायन, वास्तु, संगीत आदि ८४ कलाओं का आविष्कार हुआ । इस प्रकार गायत्री, संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की जननी ठहरती है । जिस प्रकार बीज के भीतर वृक्ष तथा वीर्य की एक बूंद के भीतर पूरा मनुष्य सन्निहित होता है, उसी प्रकार गायत्री के २४ अक्षरों में संसार का समस्त ज्ञान-विज्ञान भरा हुआ है । यह सब गायत्री का ही अर्थ विस्तार है ।
मंत्रों में शक्ति होती है । मंत्रों के अक्षर शक्ति बीज कहलाते हैं । उनका शब्द गुन्थन ऐसा होता है कि उनके विधिवत् उच्चारण एवं प्रयोग से अदृश्य आकाश मण्डल में शक्तिशाली विद्युत् तरंगें उत्पन्न होती हैं, और मनःशक्ति तरंगों द्वारा नाना प्रकार के आध्यात्मिक एवं सांसारिक प्रयोजन पूरे होते हैं । साधारणतः सभी विशिष्ट मंत्रों में यही बात होती है । उनके शब्दों में शक्ति तो होती है, पर उन शब्दों का कोई विशेष महत्वपूर्ण अर्थ नहीं होता । पर गायत्री मंत्र में यह बात नहीं है । इसके एक-एक अक्षर में अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञानों के रहस्यमय तत्त्व छिपे हुए हैं । 'तत्-सवितुः - वरेण्यं-' आदि के स्थूल अर्थ तो सभी को मालूम है एवं पुस्तकों में छपे हुए हैं । यह अर्थ भी शिक्षाप्रद हैं । परन्तु इनके अतिरिक्त ६४ कलाओं, ६ शास्त्रों, ६ दर्शनों एवं ८४ विद्याओं के रहस्य प्रकाशित करने वाले अर्थ भी गायत्री के हैं । उन अर्थों का भेद कोई-कोई अधिकारी पुरुष ही जानते हैं । वे न तो छपे हुए हैं और न सबके लिये प्रकट हैं ।
इन २४ अक्षरों में आर्युवेद शास्त्र भरा हुआ है । ऐसी-ऐसी दिव्य औषधियों और रसायनों के बनाने की विधियाँ इन अक्षरों में संकेत रूप से मौजूद हैं जिनके द्वारा मनुष्य असाध्य रोगों से निवृत्त हो सकता है, अजर-अमर तक बन सकता है । इन २४ अक्षरों में सोना बनाने की विधा का संकेत है । इन अक्षरों में अनेकों प्रकार के आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, नारायणास्त्र, पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि हथियार बनाने के विधान मौजूद हैं । अनेक दिव्य शक्तियों पर अधिकार करने की विधियों के विज्ञान भरे हुए हैं । ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करने, लोक-लोकान्तरों के प्राणियों से सम्बन्ध स्थापित करने, ग्रहों की गतिविधि तथा प्रभाव को जानने, अतीत तथा भविष्य से परिचित होने, अदृश्य एवं अविज्ञात तत्त्वोंको हस्तामलकवत् देखने आदि अनेकों प्रकार के विज्ञान मौजूद हैं । जिकी थोड़ी सी भी जानकारी मनुष्य प्राप्त करले तो वह भूलोक में रहते हुए भी देवताओं के समान दिव्य शक्तियों से सुसम्पन्न बन सकता है । प्राचीन काल में ऐसी अनेक विद्याएँ हमारे पूर्वजों को मालूम थीं जो आज लुप्त प्रायः हो गई हैं । उन विद्याओं के कारण हम एक समय जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं स्वर्ग-सम्पदाओं के स्वामी बने हुए थे । आज हम उनसे वञ्चित होकर दीन-हीन बने हुए हैं ।

‍आवश्यकता इस बात की है कि गायत्री महामन्त्र में सन्निहित उन लुप्तप्राय महाविद्याओं को खोज निकाला जाय, जो हमें फिर से स्वर्ग- सम्पदाओं का स्वामी बना सके । यह विषय सर्वसाधारण का नहीं है । हर एक का इस क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं है । अधिकारी सत्पात्र ही इस क्षेत्र में कुछ अनुसंधान कर सकते हैं और उपलब्ध प्रतिफलों से जनसामान्य को लाभान्वित करा सकते हैं ।

गायत्री के दोनों ही प्रयोग हैं । वह योग भी है और तन्त्र भी । उससे आत्म-दर्शन और ब्रह्मप्राप्ति भी होती है तथा सांसारिक उपार्जन-संहार भी । गायत्री-योग दक्षिण मार्ग है- उस मार्ग से हमारे आत्म-कल्याण का उद्देश्य पूरा होता है ।

‍दक्षिण मार्ग का आधार यह है कि- विश्वव्यापी ईश्वरीय शक्तियों को आध्यात्मिक चुम्बकत्व से खींच कर अपने में धारण किया जाय, सतोगुण को बढ़ाया जाय और अन्तर्जगत् में अवस्थित पञ्चकोष, सप्त प्राण, चेतना चतुष्टय, षटचक्र एवं अनेक उपचक्रों, मातृकाओं, ग्रन्थियों, भ्रमरों, कमलों, उपत्यिकाओं को जागृत करके आनन्ददायिनी = अलौकिक शक्तियों का आविर्भाव किया जाय ।
गायत्री-तन्त्र वाम मार्ग है- उससे सांसारिक वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं और किसी का नाश भी किया जा सकता है । वाम मार्ग का आधार यह है कि-'' दूसरे प्राणियों के शरीरों में निवास करने वाली शक्ति को इधर से उधर हस्तान्तरित करके एक जगह विशेष मात्रा में शक्ति संचित कर ली जाय और उस शक्ति का मनमाना उपयोग किया जाय ।''

तन्त्र का विषय गोपनीय है, इसलिए गायत्री तन्त्र के ग्रन्थों में ऐसी अनेकों साधनाएँ प्राप्त होती हैं, जिनमें धन, सन्तान, स्त्री, यश, आरोग्य, पदप्राप्ति, रोग-निवारण, शत्रु नाश, पाप-नाश, वशीकरण आदि लाभों का वर्णन है और संकेत रूप से उन साधनाओं का एक अंश बताया गया है । परन्तु यह भली प्रकार स्मरण रखना चाहिये कि इन संक्षिप्त संकेतों के पीछे एक भारी कर्मकाण्ड एवं विधिविधान है । वह पुस्तकों में नहीं वरन् अनुभवी साधना सम्पन्न व्यक्तियों से प्राप्त होता है, जिन्हें सद्गुरु कहते हैं ।

गायत्री की २४ कलाएँ

गायत्री के चौबीस अक्षरों से संबंधित कलाएँ एवं मातृकाएँ इस प्रकार हैं-
(१) तापिनी
(२) सफला
(३) विश्वा
(४) तुष्टा
(५) वरदा
(६) रेवती
(७) सूक्ष्मा
(८) ज्ञाना
(९) भर्गा
(१०) गोमती
(११) दर्विका
(१२) थरा
(१३) सिंहिका
(१४) ध्येया
(१५) मर्यादा
(१६) स्फुरा
(१७) बुद्धि
(१८) योगमाया
(१९) योगात्तरा
(२०) धरित्री
(२१) प्रभवा
(२२) कुला
(२३) दृष्या
(२४) ब्राह्मी ।
.........हर हर महादेव........जय अम्बे

आर्यावर्त भरतखण्ड संस्कृति
आर्यावर्त भरतखण्ड संस्कृति — 

Thursday, July 11, 2013

सनातन धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है


''सनातन धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि ''
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वर्ष के प्रथम महिना अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है।
चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है।
इसके बाद अश्विन {क्वार} मास में प्रमुख नवरात्रि होती है।
इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में चार नवरात्रि का महोत्सव मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है।
इनमें आश्विन {क्वार} मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है।
दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है।
इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती, इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं।

गुप्त व चमत्कारीक शक्तियां प्राप्त करने का यह श्रेष्ठ अवसर होता है।
यदि इन गुप्त नवरात्रों में कोई भी भक्त माता दुर्गा की पूजा- साधना करता है तो माँ उसके जीवन को सफल कर देती हैं|

नवरात्रि के विशेष काल में देवी उपासना के माध्यम से खान-पान, रहन-सहन और देव स्मरण में अपनाए गए नियम तन व मन को शक्ति और ऊर्जा देते हैं। जिससे इंसान निरोगी होकर दीर्घ आयु और सुख प्राप्त करता है।

धर्म ग्रंथों के अनुसार गुप्त नवरात्रि में प्रमुख रूप से भगवान शंकर व देवी शक्ति की आराधना की जाती है।

देवी दुर्गा शक्ति का साक्षात स्वरूप है। दुर्गा शक्ति में दमन का भाव भी जुड़ा है। यह दमन या अंत होता है शत्रु रूपी दुर्गुण, दुर्जनता, दोष, रोग या विकारों का। ये सभी जीवन में अड़चनें पैदा कर सुख-चैन छीन लेते हैं।

यही कारण है कि देवी दुर्गा के कुछ खास और शक्तिशाली मंत्रों का देवी उपासना के विशेष काल में ध्यान शत्रु, रोग, दरिद्रता रूपी भय बाधा का नाश करने वाला माना गया है।

’नवरात्रि’ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर महानवमी तक किए जाने वाले पूजन, जाप, उपवास का प्रतीक हैं।

''नव शक्ति समायुक्तां नवरात्रं तदुच्यते''

नौ शक्तियों से युक्त नवरात्रि कहलाते हैं।

देवी पुराण के अनुसार एक वर्ष में चार माह नवरात्र के लिए निश्चित हैं-

''आश्विने वा ऽथवा माघे चैत्रें वा श्रावणेऽति वा''

अर्थात ~आश्विन {क्वार} मास में शारदीय नवरात्रि तथा चैत्र में वासंतिक नवरात्रि होते हैं। माघ व श्रावण के गुप्त नवरात्रि कहलाते हैं वहीं शारदीय नवरात्रि में देवी शक्ति की पूजा व बासंतिक नवरात्रि में विष्णु पूजा की प्रधानता रहती है।~~~~हर हर महादेव

Wednesday, July 10, 2013

जय जगन्नाथ.



जय जगन्नाथ.

श्रीकृष्ण अपने परम भक्त राज इन्द्रद्युम्न के सपने में आये और उन्हे 

आदेश दिया कि पुरी के दरिया किनारे पर पडे एक पेड़ के तने में से वे 

श्री कृष्ण का विग्रह बनायें। राज ने इस कार्य के लिये काबिल बढ़ई की 

तलाश शुरु की। कुछ दिनो बाद एक रहस्यमय बूढा ब्राह्मण आया और 

उसने कहा कि प्रभु का विग्रह बनाने

की जिम्मेदारी वो लेना चाहता है। लेकिन

उसकी एक शर्त थी - कि वो विग्रह बन्द कमरे में बनायेगा और उसका 

काम खत्म होने तक कोई भी कमरे का दरवाजा नहीं खोलेगा, नहीं तो 

वो काम अधूरा छोड़ कर चला जायेगा। ६-७ दिन बाद काम करने की 

आवाज़ आनी बन्द हो गयी तो राजा से रहा न गया और ये सोचते हुए 

कि ब्राह्मण को कुछ हो गया होगा, उसने दरवाजा खोल दिया। पर अन्दर 

तो सिर्फ़ भगवान का अधूरा विग्रह ही मिला और बूढा ब्राह्मण गायब हो 

चुका था। तब राजा को एहसास हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं बल्कि 

देवों का वास्तुकार विश्वकर्मा था। राजा को आघात हो गया क्योंकि 

विग्रह के हाथ
और पैर नहीं थे, और वह पछतावा करने
लगा कि उसने दरवाजा क्यों खोला। पर
तभी वहाँ पर ब्राह्मण के रूप में नारद मुनि पधारे और उन्होंने राजा से 

कहा कि भगवान
इसी स्वरूप में अवतरित होना चाहते थे और
दरवाजा खोलने का विचार स्वयं श्री कृष्ण ने राजा के दिमाग में डाला 

था। इसलिये उसे आघात महसूस करने का कोइ कारण नहीं है और वह 

निश्चिन्त हो जाये क्योंकि सब श्री कृष्ण की इच्छा ही है।

पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ
जी की रथयात्रा दक्षिण भारतीय उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे 

पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान 

श्री जगन्नाथ
जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ 

जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और 

श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी 

प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से संपूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री 

जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है
और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य 

महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है।
पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल 

द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरंभ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान 

पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, 

लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं।

रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर
श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर
माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अंत में गरुण ध्वज पर या नंदीघोष 

नाम के रथ पर
श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ ६५ फीट लंबा, ६५ 

फीट चौड़ा और ४५ फीट ऊँचा है। इसमें ७ फीट व्यास के १७ पहिये 

लगे हैं। बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन 

जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं। संध्या तक ये तीनों ही रथ मंदिर 

में जा पहुँचते हैं। अगले दिन भगवान रथ से
उतर कर मंदिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं। गुंडीचा 

मंदिर में इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन 

कहा जाता है।

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Saturday, July 6, 2013

हनुमानचालीसा



दोहा

श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारी
बराणु रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार
बल बुधि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार

चौपाई

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥१॥

राम दूत अतुलित बल धामा
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा॥२॥

महाबीर बिक्रम बजरंगी
कुमति निवार सुमति के संगी॥३॥

कंचन बरन बिराज सुबेसा
कानन कुंडल कुँचित केसा॥४॥

हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजे
काँधे मूँज जनेऊ साजे॥५॥

शंकर सुवन केसरी नंदन
तेज प्रताप महा जगवंदन॥६॥

विद्यावान गुनी अति चातुर
राम काज करिबे को आतुर॥७॥

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया
राम लखन सीता मनबसिया॥८॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा
विकट रूप धरि लंक जरावा॥९॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे
रामचंद्र के काज सवाँरे॥१०॥

लाय सजीवन लखन जियाए
श्री रघुबीर हरषि उर लाए॥११॥

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई
तुम मम प्रिय भरत-हि सम भाई॥१२॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावै
अस कहि श्रीपति कंठ लगावै॥१३॥

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा
नारद सारद सहित अहीसा॥१४॥

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते
कवि कोविद कहि सके कहाँ ते॥१५॥

तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा
राम मिलाय राज पद दीन्हा॥१६॥

तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना
लंकेश्वर भये सब जग जाना॥१७॥

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू
लिल्यो ताहि मधुर फ़ल जानू॥१८॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही
जलधि लाँघि गए अचरज नाही॥१९॥

दुर्गम काज जगत के जेते
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥२०॥

राम दुआरे तुम रखवारे
होत ना आज्ञा बिनु पैसारे॥२१॥

सब सुख लहैं तुम्हारी सरना
तुम रक्षक काहु को डरना॥२२॥

आपन तेज सम्हारो आपै
तीनों लोक हाँक तै कापै॥२३॥

भूत पिशाच निकट नहि आवै
महावीर जब नाम सुनावै॥२४॥

नासै रोग हरे सब पीरा
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥२५॥

संकट तै हनुमान छुडावै
मन क्रम वचन ध्यान जो लावै॥२६॥

सब पर राम तपस्वी राजा
तिनके काज सकल तुम साजा॥२७॥

और मनोरथ जो कोई लावै
सोई अमित जीवन फल पावै॥२८॥

चारों जुग परताप तुम्हारा
है परसिद्ध जगत उजियारा॥२९॥

साधु संत के तुम रखवारे
असुर निकंदन राम दुलारे॥३०॥

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता
अस बर दीन जानकी माता॥३१॥

राम रसायन तुम्हरे पासा
सदा रहो रघुपति के दासा॥३२॥

तुम्हरे भजन राम को पावै
जनम जनम के दुख बिसरावै॥३३॥

अंतकाल रघुवरपुर जाई
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई॥३४॥

और देवता चित्त ना धरई
हनुमत सेई सर्व सुख करई॥३५॥

संकट कटै मिटै सब पीरा
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥३६॥

जै जै जै हनुमान गुसाईँ
कृपा करहु गुरु देव की नाई॥३७॥

जो सत बार पाठ कर कोई
छूटहि बंदि महा सुख होई॥३८॥

जो यह पढ़े हनुमान चालीसा
होय सिद्ध साखी गौरीसा॥३९॥

तुलसीदास सदा हरि चेरा
कीजै नाथ हृदय मह डेरा॥४०॥

दोहा

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥

                                                                         जय श्री राम

Monday, July 1, 2013

Jai Ji Shiva Shankar



कर्पुर गौरम करुणावतारम् सन्सार सारं भुजगेन्द्र हारम्।
सदा वसन्तम् हृदयार्वरिन्दे भवं भवानी सहितम् नमामि।
जय शिवशंकर, जय गंगाधर, करुणा-कर करतार हरे,

जय कैलाशी, जय अविनाशी, सुखराशि, सुख-सार हरे
जय शशि-शेखर, जय डमरू-धर जय-जय प्रेमागार हरे,
जय त्रिपुरारी, जय मदहारी, अमित अनन्त अपार हरे,
निर्गुण जय जय, सगुण अनामय, निराकार साकार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय रामेश्वर, जय नागेश्वर वैद्यनाथ, केदार हरे,
मल्लिकार्जुन, सोमनाथ, जय, महाकाल ओंकार हरे,
त्र्यम्बकेश्वर, जय घुश्मेश्वर भीमेश्वर जगतार हरे,
काशी-पति, श्री विश्वनाथ जय मंगलमय अघहार हरे,
नील-कण्ठ जय, भूतनाथ जय, मृत्युंजय अविकार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय महेश जय जय भवेश, जय आदिदेव महादेव विभो,
किस मुख से हे गुरातीत प्रभु! तव अपार गुण वर्णन हो,
जय भवकार, तारक, हारक पातक-दारक शिव शम्भो,
दीन दुःख हर सर्व सुखाकर, प्रेम सुधाधर दया करो,
पार लगा दो भव सागर से, बनकर कर्णाधार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय मन भावन, जय अति पावन, शोक नशावन,
विपद विदारन, अधम उबारन, सत्य सनातन शिव शम्भो,
सहज वचन हर जलज नयनवर धवल-वरन-तन शिव शम्भो,
मदन-कदन-कर पाप हरन-हर, चरन-मनन, धन शिव शम्भो,
विवसन, विश्वरूप, प्रलयंकर, जग के मूलाधार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
भोलानाथ कृपालु दयामय, औढरदानी शिव योगी, सरल हृदय,
अतिकरुणा सागर, अकथ-कहानी शिव योगी, निमिष में देते हैं,
नवनिधि मन मानी शिव योगी, भक्तों पर सर्वस्व लुटाकर, बने मसानी
शिव योगी, स्वयम्‌ अकिंचन,जनमनरंजन पर शिव परम उदार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
आशुतोष! इस मोह-मयी निद्रा से मुझे जगा देना,
विषम-वेदना, से विषयों की मायाधीश छड़ा देना,
रूप सुधा की एक बूँद से जीवन मुक्त बना देना,
दिव्य-ज्ञान- भंडार-युगल-चरणों को लगन लगा देना,
एक बार इस मन मंदिर में कीजे पद-संचार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
दानी हो, दो भिक्षा में अपनी अनपायनि भक्ति प्रभो,
शक्तिमान हो, दो अविचल निष्काम प्रेम की शक्ति प्रभो,
त्यागी हो, दो इस असार-संसार से पूर्ण विरक्ति प्रभो,
परमपिता हो, दो तुम अपने चरणों में अनुरक्ति प्रभो,
स्वामी हो निज सेवक की सुन लेना करुणा पुकार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
तुम बिन ‘बेकल’ हूँ प्राणेश्वर, आ जाओ भगवन्त हरे,
चरण शरण की बाँह गहो, हे उमारमण प्रियकन्त हरे,
विरह व्यथित हूँ दीन दुःखी हूँ दीन दयालु अनन्त हरे,
आओ तुम मेरे हो जाओ, आ जाओ श्रीमंत हरे,
मेरी इस दयनीय दशा पर कुछ तो करो विचार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
॥ इति श्री शिवाष्टक स्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥

Thursday, June 27, 2013



400 साल तक बर्फ के नीचे दबा था केदारनाथ मंदिर...
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केदारनाथ मंदिर की एक और ऐसी हकीकत जिससे कम लोग ही वाकिफ होंगे। वैज्ञानिकों के मुताबिक केदारनाथ मंदिर 400 साल तक बर्फ के नीचे दबा था, लेकिन फिर भी उसे कुछ नहीं हुआ। इसीलिए जियोलॉजिस्ट और वैज्ञानिक इस बात से हैरान नहीं हैं कि ताजा जलप्रलय में केदारनाथ मंदिर बच गया।
400 साल तक बर्फ के नीचे दबा था केदारनाथ मंदिर,
चार सौ साल तक ग्लेशियर से ढंका था केदारनाथ मंदिर।
चार सौ साल तक ग्लेशियर के भयानक बोझ को सह चुका है केदारनाथ मंदिर।

जी हां, ये कहना है देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों का। शायद यही वजह है कि केदारनाथ मंदिर को जल प्रलय के थपेड़ों से कोई नुकसान नहीं हुआ।

केदारनाथ मंदिर के पत्थरों पर पीली रेखाएं हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक ये निशान दरअसल ग्लेशियर के रगड़ से बने हैं। ग्लेशियर हर वक्त खिसकते रहते हैं और जब वो खिसकते हैं तो उनके साथ न सिर्फ बर्फ का वजन होता है बल्कि साथ में वो जितनी चीजें लिए चलते हैं वो भी रगड़ खाती हुई चलती हैं। अब सोचिए जब करीब 400 साल तक मंदिर ग्लेशियर से दबा रहा होगा तो इस दौरान ग्लेशियर की कितनी रगड़ इन पत्थरों ने झेली होगी। वैज्ञानिकों के मुताबिक मंदिर के अंदर की दीवारों पर भी इसके साफ निशान हैं। बाहर की ओर पत्थरों पर ये रगड़ दिखती है तो अंदर की तरफ पत्थर ज्यादा समतल हैं जैसे उन्हें पॉलिश किया गया हो।

दरअसल 1300 से लेकर 1900 ईसवीं के दौर को लिटिल आईस एज यानि छोटा हिमयुग कहा जाता है। इसकी वजह है इस दौरान धरती के एक बड़े हिस्से का एक बार फिर बर्फ से ढंक जाना। माना जाता है कि इसी दौरान केदारनाथ मंदिर और ये पूरा इलाका बर्फ से दब गया और केदारनाथ धाम का ये इलाका भी ग्लेशियर बन गया। केदारनाथ मंदिर की उम्र को लेकर कोई दस्तावेजी सबूत नहीं मिलते। इस बेहद मजबूत मंदिर को बनाया किसने इसे लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं। कुछ कहते हैं कि 1076 से लेकर 1099 विक्रमसंवत तक राज करने वाले मालवा के राजा भोज ने ये मंदिर बनवाया था। तो कुछ कहते हैं कि आठवीं शताब्दी में ये मंदिर आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। बताया जाता है कि द्वापर युग में पांडवों ने मौजूदा केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे एक मंदिर बनवाया था। लेकिन वो वक्त के थपेड़े सह न सका। वैसे गढ़वाल विकास निगम के मुताबिक मंदिर आठवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। यानि छोटे हिमयुग का दौर जो कि 1300 ईसवी से शुरू हुआ उससे पहले ही मंदिर बन चुका था।

वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने केदारनाथ इलाके की लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग भी की, लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग एक तकनीक है जिसके जरिए पत्थरों और ग्लेशियर के जरिए उस जगह की उम्र का अंदाजा लगता है। ये दरअसल उस जगह के शैवाल और कवक को मिलाकर उनके जरिए समय का अनुमान लगाने की तकनीक है। लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग के मुताबिक छोटे हिमयुग के दौरान केदारनाथ धाम इलाके में ग्लेशियर का निर्माण 14वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ। और इस घाटी में ग्लेशियर का बनना 1748 ईसवीं तक जारी रहा। अगर 400 साल तक ये मंदिर ग्लेशियर के बोझ को सह चुका है और सैलाब के थपेड़ों को झेलकर बच चुका है तो जाहिर है इसे बनाने की तकनीक भी बेहद खास रही होगी। जाहिर है शायद इसे बनाते वक्त इन बातों का ध्यान रखा गया होगा कि ये कहां है क्या ये बर्फ, ग्लेशियर और सैलाब के थपेड़ों को सह सकता है।

दरअसल केदारनाथ का ये पूरा इलाका चोराबरी ग्लेशियर का हिस्सा है। ये पूरा इलाका केदारनाथ धाम और मंदिर तीन तरफ से पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फीट ऊंचा केदारनाथ। दूसरी तरफ है 21,600 फीट ऊंचा खर्चकुंड। तीसरी तरफ है 22,700 फीट ऊंचा भरतकुंड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पांच नदियों का संगम भी है यहां मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णद्वरी। वैसे इसमें से कई नदियों को काल्पनिक माना जाता है। लेकिन यहां इस इलाके में मंदाकिनी का राज है यानि सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में जबरदस्त पानी। जब इस मंदिर की नींव रखी गई होगी तब भी शिव भाव का ध्यान रखा गया होगा। शिव जहां रक्षक हैं वहीं शिव विनाशक भी हैं। इसीलिए शिव की आराधना के इस स्थल को खास तौर पर बनाया गया। ताकि वो रक्षा भी कर सके और विनाश भी झेल सके। 85 फीट ऊंचा, 187 फीट लंबा और 80 फीट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें 12 फीट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई हैं। मंदिर को 6 फीट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है।

ये हैरतअंगेज है कि इतने साल पहले इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर, यूं तराश कर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी। जानकारों का मानना है कि केदारनाथ मंदिर को बनाने में, बड़े पत्थरों को एक दूसरे में फिट करने में इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया होगा। ये तकनीक ही नदी के बीचों बीच खड़े मंदिरों को भी सदियों तक अपनी जगह पर रखने में कामयाब रही है।

लेकिन ताजा जल प्रलय के बाद अब वैज्ञानिकों को इस बात का खतरा सता रहा है कि लगातार पिघलते ग्लेशियर की वजह से। ऊपर पहाड़ों में मौजूद सरोवर लगातार बढ़ते जा रहे हैं और जैसा कि केदारनाथ में हुआ। गांधी सरोवर ज्यादा पानी से फट कर नीचे सैलाब की शक्ल में आया। वैसा आगे भी हो सकता है और अगर मंदिर पहाड़ों से गिरे इस चट्टानों के लीधे ज़द में आ गया तो उसे बड़ा नुकसान हो सकता है। साथ ही ये खतरा केदारनाथ घाटी पर हमेशा के लिए मंडराता रहेगा।
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तिथि - तृतीया, आषाढ़ मास, कृष्ण पक्ष, दिन बुद्धवार, विक्रम संवत २०७०
सच की एक छोटी सी चिंगारी झूठ के बड़े से बड़े पहाड़ को भी नष्ट कर देती है। यदि आपके हृदय में सच की अग्नि प्रज्वलित हो रही है और आप सच को निर्भीकतापूर्वक स्वीकार करने की शक्ति रखते हैं तो कृपया आप भी हमारे साथ इन पेजों के समर्थक बनकर जनचेतना एवं परिवर्तन कार्यक्रमों के सहभागीदार बनें और हमारा उत्साहवर्द्धन, मार्गदर्शन करें, आपका हार्दिक स्वागत है।


भारत की ऐसी और प्राचीन तकनीकों के बारे मे जानने के लिए यहाँ click करे !!
और एक बार पूरा विडियो देखें !
http://www.youtube.com/watch?v=BR-lLpzi7JE


हर हर महादेव !




Tuesday, June 4, 2013

बाल समय रवि भक्षि लियो तब





बाल समय रवि भक्षि लियो तब
तीनहुं लोक भयो अंध्यिारों
ताहि सो त्रास भयो जग को
यह संकट काहू से जात न टारो
देवन आन करी विनती तब
छाड़ दियो रवि कष्ट निवारो
को नहीं जानत है जग में कपि
संकट मोचन नाम तिहारो।!!!۞!!! 

अर्थात खेल ही खेल में जब बालक हनुमान ने सूर्य को फल समझ कर मुंह में दबा लिया, तो तीनों लोगों में अंधकार छा गया। हाहाकार मच गई, किसी से यह संकट दूर नहीं हुआ तो देवतागण भगवान विष्णु के पास गए। भगवान विष्णु सारा मामला समझ कर हनुमान जी के पास आए उनकी स्तुति की तब जाकर उन्होंने सूर्य को मुंह से बाहर निकाला और तीनों लोकों का अंधकार खत्म हुआ। हनुमान जी के पठन पाठन का प्रसंग भी काफी दिलचस्प है। इनके पिता पवन ;वायु ने बालक हनुमान को वेदों का पठन पाठन कराने के लिए सूर्य देव से आग्रह किया, लेकिन हनुमान जी की बाल क्रीडा के भुक्त भोगी सूर्य ने कहा कि मेरा ;सूर्यद्ध स्वभाव स्थिर नहीं बल्कि चलायमान हैं। अतः हनुमान जी को चलायमान अवस्था में वेदोपाठ कराना असंभव है। मेरे स्वभाव में स्थिरता नहीं होने से नियमित पढ़ाई नहीं हो सकती। यह देखकर हनुमान जी आकाश मार्ग से सूर्य की ओर मुंह करके पैरों से पीछे की ओर प्रसन्न मन से बानर के बच्चे के समान गमन कर पढ़ने लगे। उनके इस प्रयास से पाठ्यक्रम में किसी प्रकार का भ्रम नहीं हुआ। उनके इस आश्चर्यजनक खेल को देखकर इन्द्र, ब्रहमा, विष्णु, महेश आदि देवों की आंखें चकाचैंध् हो गई। अर्थात इन देवों ने मन में हनुमान जी की इस क्रीडा से घबराहट हो गई। वे विचार करने लगे कि क्या ये वीरता के भंडार हैं या वीर रस हैं, अथवा स्वयं धैर्य और साहस है। तुलसीदासजी कहते हैं कि देवता इस दुविधा में हैं कि क्या हनुमान जी का शरीर इन सबका सार रूप धरण किये हुए हैं। बालक हनुमान की इस लीला के बाद ही सूर्य देव ने इन्हें वेद शास्त्रों का अध्ययन शुरू कराया। वेद शास्त्रों का ज्ञान पूरा होने पर सूर्य ने गुरू दक्षिणा के रूप में अपने पुत्र सुग्रीव की रक्षा का वचन मांगा, तो न केवल सुग्रीव को भाई बाली के कोप से बचाया बल्कि उन्हें प्रभु श्रीराम से मिला दिया अर्थात सीध्े परमात्मा से मिला दिया। गोस्वामी तुलसीदास जी जीवन अनुभव की बात कहते हैं कि भयानक रावण रूपी दरिद्रता को नष्ट करने के लिए पवनपुत्र का तेज तीनों लोकों में विश्राम गृह है। सेवा में ;दूसरों के हित के लिए सतर्क रहते हुए आप ज्ञानी, गुणवान तथा बलवान हैं इन गुणों का अधिकारी ही सेवारत होता है।


Monday, May 27, 2013




जय गणेशजी महाराज|
मेरे मार्ग पर पैर रख कर तो देख,
तेरे सब मार्ग न खोल दूँ तो कहना ...

इसे शेयर करें और लिखे ' ॐ गं गणपतेय नमः '
विशेष - कल अंगारकी चतुर्थी है अर्थात मंगलवार को पड़ने वाली चतुर्थी| इस दिन सिद्धिविनायक गणपति को प्रसाद अर्पित कर आशीर्वाद पायें - बुक करें www.OnlinePrasad.com या 91-9933421341 पर मिस्ड कॉल करें| 

Monday, May 20, 2013



ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -३-

|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांगhttp://t.co/d5j0apuiHl

वैशाख शुक्ल, एकादशी, मंगलवार, वि० स० २०७०



गत ब्लॉग से आगे...साधक-प्रभो ! मुझे वैसा ही मानना चाहिये जैसा 

आप कहते है किन्तु मन बड़ा पाजी है | वह मानने नहीं देगा | आप 

कहते है की बात सही है फिर भी मुझे तो यही प्रिय लगता है की मैं 

बुलाऊँ और तुरन्त आप आ जायँ | यह बतलाइये वह कौन-सी पुकार के 

साथ आप आ सकते है |

भगवान-गोपियों की भाँती जब साधक मेरे लिए तड़पता है तब वैसे आ 

सकता हूँ या मुझमे प्रेम और विश्वास करके द्रौपदी और गजेन्द्र की भाँती 

जब आतुरता से व्याकुल होकर पुकारता है तब आ सकता हूँ | अथवा 

प्रह्लाद के सद्र्श निस्कामभाव से भजने वाले के लिए बिना बुलायें भी आ 

सकता हूँ |

साधक-विरह से व्याकुल करके आते है यह आपकी कैसी आदत है? आप 

विरह की वेदना देकर क्यों तडपाते है |

भगवान-विरहजनित व्याकुलता की तो बड़े दर्जे की स्थिति है | विरह 

व्याकुलता से प्रेम की वृद्धि होती है | फिर भक्त क्षणभर का भी वियोग 

सहन नहीं कर सकता | उसको सदा के लिए मेरी प्राप्ति हो जाती है | 

एक दफा मिलने के बाद फिर कभी छोड़ता नहीं | जैसे भरत चौदह 

सालतक विरह से व्याकुल रहा, फिर मेरा उसने कभी साथ नहीं छोड़ा |

साधक-आपको कभी कार्य होता तो आप प्राय: लक्ष्मण या शत्रुघन को ही 

सुपुर्द कर देते, भरत को नहीं | इसका क्या कारण था |

भगवान-प्रेम की अधिकता के कारण भारत मेरा वियोग सहन नहीं कर 

सकता था |

साधक-फिर उसने चौदह साल तक वियोग कैसे सहन किया |

भगवान-जब मेरी आज्ञा से बाध्य होकर उसको वियोग सहन करना पड़ा 

और उसी विरह में प्रेम की इतनी वृद्धि हुई की फिर उसका मुझसे कभी 

वियोग नहीं हुआ |

साधक-पर उस विरह में आपने उस भरत का क्या हित सोचा |

भगवान-चौदह साल का विरह सहन करने से वह विरह और मिलन के 

तत्व को जान गया | फिर एक क्षण भर का वियोग भी उसको एक युग 

के समान प्रतीत होने लगा | यदि ऐसा नहीं होता तो मेरी और इतना 

आकर्षण कैसे होता |....शेष अगले ब्लॉग में .

—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस 

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत 

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!





VIBHUTI. 

An empty forehead, in Hindu thoughts, is comparable to cemetery ground – Lalaata shoonyam smahaana tulyam. The greatest example of sporting Vibhuti at all times is the Mahayogi, Lord Shiva. Indeed, the Lord is smeared with ash all over His body. The root word ‘Bhooti’ is aishwaryam, literally wealth and treasure. The preposition ‘Vi; means valuable. In the South Vibhuti is Thiruneeru. Tripundra is vibhuti smeared across the forehead to the end of both eyebrows 

In the Gita, Vibhuti Yoga presents the glories of Ishvara. In whiever object, there is some glory of Ishvara. There is nothing that is not Ishvara. He is the source of all fame and beauty. Mahabaho means the glory that one enjoys belongs to Ishvara. Truth of Ishvara is not easily understood. 

In the Shaivite tradtion, vibhuti is also a reminder of mortality; both kings and paupers get reduced to a handful of ash. It is a reminder that the Self is wrapped in maya. There is a Puranic story of how Mahadeva burned Kama, god of desire to ashes. He was trying to hinder Shiva from focusing on the Divine Truth. Hence, vibhuti is a divine reminder to pursue the purusharta goals.

Sage Thirujnana Sambanthar, in dedication to Lord Sundareshawarar of Madurai sings in Thiruneeru Pathigam: “Mantra is the ash; Higher than heavenly people is ash; Beauty is ash; in the religion is ash; The Lord of Thiruaalavaay, who share the body with the red-lipped Parvati, His Holy Ash. 

Hara Hara Mahadeva — Yogi Ananda Saraswati
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Aryavart



Wednesday, May 15, 2013


भगवान की भक्ति में लगाए मन


जिस मानव देह को लोग बिना भक्ति के ही खत्म कर देते हैं, उन्हें इस बात का एहसास नहीं कि भगवान ने करुणा करके उन्हें यह तन दिया है। उस शरीर को पाने के बाद उसका सही अर्थों में लोग उपयोग नहीं कर रहे हैं। उसे अगर भक्ति के मार्ग पर लगाया जाए तो वह भगवान को भी वश में करके उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है।
जो स्वर्ग चाहते हैं, उन्हें पता नहीं कि वहां केवल भोग किया जा सकता है। स्वर्ग में रहने वाले भगवान भक्ति और कर्म नहीं कर सकते हैं। यह पुण्य लाभ तो मानव शरीर पाने से ही संभव है।
मानव शरीर पाने के बाद ही कर्म करके मनुष्य को भगवान से प्रेम करने का अवसर मिलता है। इसलिए भगवान की भक्ति करनी चाहिए। 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव जीवन पाने के बाद भी जो लोग स्वर्ग पाने की इच्छा रखते हैं, वे मूर्ख हैं।
कर्म इस संसार में आने वाला हर जीव करता है, मगर भगवत्‌ आराधना और भक्ति केवल मानव तन से ही संभव है। उसके बाद भी कुछ लोग अपने कर्म और भक्ति के बाद स्वर्ग पाने की इच्छा मन में पालते हैं। उन्हें पता नहीं होता है कि जिसे वे स्वर्ग पाने का रास्ता समझते हैं, उस मानव तन को पाने के लिए देवता भी लालायित रहते हैं, क्योंकि मानव देह पाने के बाद ही भक्ति रस से मिलने वाले आनंद का अनुभव किया जा सकता है।