Monday, May 20, 2013



ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -३-

|| श्रीहरिः ||

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वैशाख शुक्ल, एकादशी, मंगलवार, वि० स० २०७०



गत ब्लॉग से आगे...साधक-प्रभो ! मुझे वैसा ही मानना चाहिये जैसा 

आप कहते है किन्तु मन बड़ा पाजी है | वह मानने नहीं देगा | आप 

कहते है की बात सही है फिर भी मुझे तो यही प्रिय लगता है की मैं 

बुलाऊँ और तुरन्त आप आ जायँ | यह बतलाइये वह कौन-सी पुकार के 

साथ आप आ सकते है |

भगवान-गोपियों की भाँती जब साधक मेरे लिए तड़पता है तब वैसे आ 

सकता हूँ या मुझमे प्रेम और विश्वास करके द्रौपदी और गजेन्द्र की भाँती 

जब आतुरता से व्याकुल होकर पुकारता है तब आ सकता हूँ | अथवा 

प्रह्लाद के सद्र्श निस्कामभाव से भजने वाले के लिए बिना बुलायें भी आ 

सकता हूँ |

साधक-विरह से व्याकुल करके आते है यह आपकी कैसी आदत है? आप 

विरह की वेदना देकर क्यों तडपाते है |

भगवान-विरहजनित व्याकुलता की तो बड़े दर्जे की स्थिति है | विरह 

व्याकुलता से प्रेम की वृद्धि होती है | फिर भक्त क्षणभर का भी वियोग 

सहन नहीं कर सकता | उसको सदा के लिए मेरी प्राप्ति हो जाती है | 

एक दफा मिलने के बाद फिर कभी छोड़ता नहीं | जैसे भरत चौदह 

सालतक विरह से व्याकुल रहा, फिर मेरा उसने कभी साथ नहीं छोड़ा |

साधक-आपको कभी कार्य होता तो आप प्राय: लक्ष्मण या शत्रुघन को ही 

सुपुर्द कर देते, भरत को नहीं | इसका क्या कारण था |

भगवान-प्रेम की अधिकता के कारण भारत मेरा वियोग सहन नहीं कर 

सकता था |

साधक-फिर उसने चौदह साल तक वियोग कैसे सहन किया |

भगवान-जब मेरी आज्ञा से बाध्य होकर उसको वियोग सहन करना पड़ा 

और उसी विरह में प्रेम की इतनी वृद्धि हुई की फिर उसका मुझसे कभी 

वियोग नहीं हुआ |

साधक-पर उस विरह में आपने उस भरत का क्या हित सोचा |

भगवान-चौदह साल का विरह सहन करने से वह विरह और मिलन के 

तत्व को जान गया | फिर एक क्षण भर का वियोग भी उसको एक युग 

के समान प्रतीत होने लगा | यदि ऐसा नहीं होता तो मेरी और इतना 

आकर्षण कैसे होता |....शेष अगले ब्लॉग में .

—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस 

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत 

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!



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