आर्यों के 16 संस्कार
संस्कारों का महत्त्व :-
अंगीरा ऋषि ने संस्कारों के बारे में कहा हैं :-
चित्रं क्रमद्याथानेकई रंगे रुन्मील्यते शनै:!
ब्राह्मण्यपि तद्वा त्स्यात्संस्कारैर्विधिपूर्
अर्थात जैसे अनेक प्रकार के रंगों को तूलीका द्वारा संयुक्त करके चित्र
बन जाता हैं, इसी प्रकार विधिपूर्वक किये गए संस्कारों से यह शरीर भी
ब्रह्म प्राप्ति के योग्य हो जाता हैं.
वेदों में जीवन के निर्माण को अत्यधिक महत्त्व दिया गया हैं, जिसमें
गर्भाधान से लगाकर मृत्यु तक की क्रिया का विषद विवेचन हैं. "संस्कार"
शब्द का तात्पर्य हैं - 'स्पर्श द्वारा आकार', अर्थात एक बीज को स्पर्श
देकर उसे पूर्णता तक पहुँचाना ही संस्कार हैं. संस्कार का तात्पर्य हैं
'शुद्ध आकार' अर्थात पूरे जीवन में अशुद्धता कि स्थिति न बने, उच्च
विचार, उच्च ज्ञान के साथ वह अपनी यात्रा प्रारम्भ करें. संस्कार शब्द से
ही 'संस्कृति' शब्द बना हैं.
जीवन को मूलतः पांच भागों में बांटा गया हैं, ये हैं -
1. बाल्यावस्था.
2. किशोरावस्था
3. युवावस्था
4. प्रौडावस्था
5. वृद्धावस्था.
इनमें से ध्यान से देखे, तो बारह संस्कार गर्भाधान से लेकर किशोरावस्था
के बीच में ही सम्पन्न किये जाते हैं क्यूंकि यही समय जीवन निर्माण की
नींव हैं. इस समय जीवन निर्माण जिस रूप में किया जाता हैं, उसी रूप में
आगे गतिशील होता हैं. दीक्षा की भांति जब सदगुरु जीव को संस्कारित करते
हैं, तो उसके लिए शक्तिपात की क्रिया सम्पन्न करते हैं, जिससे जीव के दोष
उसके जीवन विकास में बाधक नहीं बने.
ये षोडश संस्कार हैं -
1. गर्भाधान संस्कार
2. पुंसवन संस्कार
3. सीमन्तोन्नयन संस्कार
4. जातकर्म संस्कार
5. नामकरण संस्कार
6. निष्क्रमण संस्कार
7. अन्नप्राशन संस्कार
8. चूडाकर्म संस्कार
9. कर्णवेध संस्कार
10. वेदारम्भ संस्कार
11. यज्ञोपवीत संस्कार
12. समावर्तन संस्कार
13. विवाह (पाणिग्रहण) संस्कार
14. वानप्रस्थ संस्कार
15. संन्यास संस्कार
16. अंत्येष्टि संस्कार.
ये सभी संस्कार साधक अथवा कोई भी
व्यक्ति गुरु चरणों में उपस्थित होकर दीक्षा की भांति अथवा गुरु प्रदत्त
साधनाओं द्वारा ग्रहण कर सकते हैं.
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