हिमाचल प्रदेश को देव भूमि कहा जाता है यहां अनेक भव्य, सुंदर और कलात्मक मंदिर हैं। इन मंदिरों में वर्ष भर श्रद्धालुओं की चहल-पहल रहती है। देश-विदेश में प्रसिद्ध हिन्दू-सिक्खों का साझा मंदिर नयना देवी भी हिमाचल में ही है। पाठकों को इस बार नयना देवी ले चलते हैं, जहां पहुंच कर वापस लौटने का मन नहीं करता।
उत्तर भारत की प्रसिद्ध शक्तिपीठ माता श्री नयना देवी हिमाचल प्रदेश के जिला बिलासपुर में स्थित हैं। नयना देवी के प्राकट्य को लेकर प्रचलित जनश्रुति के अनुसार वर्तमान में जहां नयना देवी का मंदिर बना है। उस पहाड़ी के समीप कुछ गूजरों की आबादी थी। यहां नैना नाम का गूजर रहता था वह देवी का परम भक्त था। अपनी गाय, भैंस चराने के लिए वह इस पहाड़ी पर आया करता था। मंदिर के साथ जो पीपल का पेड़ आज भी विराजमान है उसके नीचे नैना गूजर की एक कुंवारी गाय खड़ी हो जाती और उसके थनों से अपने आप दूध टपकने लगता। नैना गूजर ने यह
दृश्य कई बार देखा। वह यह देख कर सोच में डूब जाता कि आखिर गाय के थनों में इस पेड़ के नीचे आकर दूध क्यों आ जाता है? अंततः एक बार उसने उस पीपल के पेड़ के नीचे जाकर जहां गाय का दूध गिरता था वहां पड़े सूखे पत्तों के ढेर को हटाना शुरू किया। पत्ते हटाने पर वहां दबी हुई पिंडी के रूप में मां भगवती की प्रतिमा दिखाई दी। नैना गूजर ने जिस दिन पिंडी के दर्शन किए, उसी रात माता ने स्वप्न में उससे कहा कि मैं आदि शक्ति दुर्गा हूं। तुम इसी पीपल के नीचे मेरा स्थान बना दो। मैं तेरे नाम से जानी जाऊंगी। नैना मां भगवती का परम भक्त था। उसने प्रातः काल उठते ही देवी मां की आज्ञानुसार उसी दिन मंदिर की नींव रखी। इसके विपरीत नयना देवी के अवतार के बारे में पौराणिक मान्यता के अनुसार यह स्थान विश्व के कुल 52 शक्ति पीठों में से एक माना जाता है। ऐसी मान्याता है कि मां सती के नयन इसी स्थान पर गिरे थे। इसलिए इस स्थान का नाम नयना देवी पड़ा है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार सतयुग में प्रजापति बह्मा के पुत्र प्रजापति दक्ष ने अपनी राजधानी कनखल( हरिद्वार) में एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया जिसमें शामिल होने के लिए देश-विदेश के राजाओं, देवताओं, ऋषि मुनियों तथा ब्रह्माणों को आमंत्रित किया, किंतु उन्होंने अपनी पुत्री मां साक्षात् भवानी को इसमें भाग लेने के लिए नहीं बुलाया। पिता के घर के मोह के कारण सती ने अपने पति भगवान शिव से यज्ञ में चलने का आग्रह किया। भगवान शिव बिना निमंत्रण के राजा दक्ष के यज्ञ समारोह में जाने के पक्षधर नहीं थे, मगर मां भवानी के पिता के घर जाने के उतावले पन को भांप कर उन्होंने पार्वाती जी को पिता के घर जाने से नहीं रोका। यज्ञ स्थल पर सती अपने पति के लिए स्थान ने देखकर क्रोध और अपमान की पीड़ा से व्याकुल हो उठीं और सती ने माता-पिता, ऋषि मुनियों तथा यज्ञ करने वाले पुरोहितों को कड़े शब्दों में फटकारा और कहा कि महादेव पर श्रद्धा के बिना यह यज्ञ स्थल उपद्रव का स्थान बन जाएगा। महादेव श्रद्धा के पात्र हैं, परमब्रह्म हैं तथा सबकी आत्मा है। उनमें श्रद्धा के बिना यह यज्ञ स्थल विपत्तियों का जनक होगा। यह राक्षसी यज्ञ माना जाएगा। इस प्रकार कठोर शब्द कहती हुई क्रोध से व्याकुल होकर सती हवन कुंड में कूद गईं।
सती के आत्मदाह की खबर जैसे ही शिवजी को मिली उनके क्रोध से भृकुटियां तक गईं और राजा दक्ष के यज्ञ को विध्वंस करने के लिए एक विशाल सेना भैरव तथा वीर बद्र के साथ भेजी। वीर बद्र ने समपूर्ण यज्ञ को तहस-नहस कर दिया तथा आमंत्रित राजाओं ऋषियों व पुरोहितों को भी मार डाला। यज्ञ स्थल पर युद्ध में इन्द्र देवता तथा भगवान विष्णु भी वीर भद्र से पराजित हो गए। वीर बद्र ने राजा दक्ष का शीश भी काट डाला। तब देवताओं द्वारा महादेव जी की स्तुति करके उन्हें शांत किया और भगवान शिव ने राजा दक्ष को बकरे का शीश लगाकर दोबारा जीवित कर दिया। जिससे यज्ञ संपूर्ण हो सका। इसके बाद मादेव जी सती के जले हुए शरीर को लेकर बिछोह के उन्माद में विचरण करने लगे। उके मोह को भंग करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के 52 टुकड़े कर डाले। जहां-जहां ये टुकड़े गिरे वे सभी स्थल शक्तिपीठ कहलाए। नयना देवी के स्थान पर सती के नयन गिरे थे। इसी प्रकार हरिद्वार में माया देवी के स्थान पर सती की नाभि गिरी थी। कामाख्या (असम) में योनि तथा हिगलाज ( पाकिस्तान) में सती का बाकी शरीर हिमाचल प्रदेश में नयना देवी के अतिरिक्त सती की जिन्हा ज्वाला मुखी में, चरण चिंतपूर्णी में तथा कांगड़ा स्थित व्रजेश्वरी देवी में सती के स्तन गिरे थे। नयना देवी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि लगभग 1240 वर्ष पहले चंद्रोही( राजस्थान) के राजा वीर चंद को स्वप्न में दिखाई दिया कि यदि वह इस स्थान पर देवीकी पूजा-अर्चना करेगा तो एक बड़े राज्य का राजा बनेगा।
अनेक कठिनाइयों के बावजूद राजा वीर चंद ने यह स्थान कोज निकाला और इस स्थान पर जहां नैना गूजर ने भगवती मां की नींव रखी थी पर मंदर का निर्माण करवाया। माता नयना देवी मंदिर के प्रांगण के आगे एक सैकड़ों वर्ष पुराना पीपल का पेड़ है जिसके बारे में अनेक दंत कथाएं प्रचलित हैं जिनमें से एक यह भी है कि अनेक अवसरों पर इस पीपल के हर पत्ते पर ज्योति जलती दिखाई देती है। माता नयना देवी के भवन के अंदर तीन मूर्तियां हैं जो दर्शनीय है। विशेषता उस अंदर वाली मूर्ति की मानी जाती है जिसके मात्र दो नयन ही दिखाई देते हैं।
मंदिर के साथ ही एक हवन कुण्ड भी बना हुआ है जिसकी विशेषता है कि इसमें डाली गई सारी सामग्री जल कर उसके बीच में ही समा जाती है टनों भस्म कहां जाती है यह आत तक रहस्य बना हुआ है। भवन से कुछ ही दूरी पर एक प्रचीन गुफा भी है। श्रद्धालुजन उसके भी श्रद्धा भाव से दर्शन करते हैं। भवन से 100 मीटर की दूरी पर एक सरोवर है जिसमें स्नान करना पुण्य माना जाता है। नयना देवी का मंदिर एक तिकोनी पर्वतमाला पर तारालय नाम की चोटी पर 3595 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इस पावन स्थल पर नयना देवी के वर्ष भर में तीन मेले चैत्र, श्रावण तथा असूज मास में लगते हैं। श्रावण मासे के मेले में सबसे अधिक संख्या पंजाब के श्रद्धालुओं की होती है।
गौरतलब है कि लनया देवी हिन्दू-सिखों का सांझा तीर्थ स्थान है। मंदिर के पुजारी के अनुसार माता नना देवी के मंदिर में श्रावण अष्टमी के मेले में साठ फीसदी सिख आते हैं। सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह ने माता नयना देवी के मंदिर में तपस्या की थी और एक साल से अधिक समय तक मंदिर के हवन कुंड में हवन किया था। एक साल से अधिक समय तक गुरू जी ने नयना देवी में तपस्या, हवन आदि किया तो मां भवानी ने स्वयं प्रकट होकर आशीर्वाद दिया और प्रसाद के रूप में तलवार भेंट की। 'ए वीर! तुम्हारी विजय होगी और इस धरती पर तुम्हारा पंथ सदैव चलता रहेगा। यह वारदान मां नयना देवी ने गुरू जी को दिया था। हवन आदि के बाद जब गुरू जी आनंदपुर साहब की ओर जाने लगे तो उन्होंने अपने तीर की नोंक से तांबे की एक प्लेट पर अपने पुरोहित को हुक्मनामा लिखकर दिया, जो आज भी नयना देवी के पंडित बांके बिहारी शर्मा के पास सुरक्षित है ।
कैसे पहुंचे नयना देवी
इस प्रकार नयना देवी हिंदू, सिखों का सांझा पूजा स्थल है। इस मंदिर में स्वामी कृष्णानंद द्वारा खोद-खोद कर बनाई 'नयना देवी गुफा' देखने योग्य है पहले श्रद्धालुओं को आनंदपुर साहब( पंजाब) से ही पैदल चलकर माता के दरबार तक जाना पड़ता था मगर अब यात्रा काफी आसान हो गई है। कीरतपुर साहब से बसें चलती थीं और वह भवन से दो किलोमीटर पीछे ज्यूना मोड़ की समाधि तक जाती थीं। अब यहां से ट्राली प्रणाली सुविधा शुरू हो चुकी है। जिससे यात्री गुफा के पास पहुंच जाते हैं। इसके अतिरिक्त अब आनंदपुर साहब के सीधे वाहन व मिनी बसें इत्यादि कौलों वाला टीबा होती हुईं ट्राली तक जाती हैं। यह सफर 18 किलोमीटर का है, जबकि अनेकों श्रद्धालु आज भी आनंदपुर साहब से और कुछ कौलां वाला टिबा से पैदल मंदिर द्वार तक चढ़ते हैं। दृश्य कई बार देखा। वह यह देख कर सोच में डूब जाता कि आखिर गाय के थनों में इस पेड़ के नीचे आकर दूध क्यों आ जाता है? अंततः एक बार उसने उस पीपल के पेड़ के नीचे जाकर जहां गाय का दूध गिरता था वहां पड़े सूखे पत्तों के ढेर को हटाना शुरू किया। पत्ते हटाने पर वहां दबी हुई पिंडी के रूप में मां भगवती की प्रतिमा दिखाई दी। नैना गूजर ने जिस दिन पिंडी के दर्शन किए, उसी रात माता ने स्वप्न में उससे कहा कि मैं आदि शक्ति दुर्गा हूं। तुम इसी पीपल के नीचे मेरा स्थान बना दो। मैं तेरे नाम से जानी जाऊंगी। नैना मां भगवती का परम भक्त था। उसने प्रातः काल उठते ही देवी मां की आज्ञानुसार उसी दिन मंदिर की नींव रखी। इसके विपरीत नयना देवी के अवतार के बारे में पौराणिक मान्यता के अनुसार यह स्थान विश्व के कुल 52 शक्ति पीठों में से एक माना जाता है। ऐसी मान्याता है कि मां सती के नयन इसी स्थान पर गिरे थे। इसलिए इस स्थान का नाम नयना देवी पड़ा है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार सतयुग में प्रजापति बह्मा के पुत्र प्रजापति दक्ष ने अपनी राजधानी कनखल( हरिद्वार) में एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया जिसमें शामिल होने के लिए देश-विदेश के राजाओं, देवताओं, ऋषि मुनियों तथा ब्रह्माणों को आमंत्रित किया, किंतु उन्होंने अपनी पुत्री मां साक्षात् भवानी को इसमें भाग लेने के लिए नहीं बुलाया। पिता के घर के मोह के कारण सती ने अपने पति भगवान शिव से यज्ञ में चलने का आग्रह किया। भगवान शिव बिना निमंत्रण के राजा दक्ष के यज्ञ समारोह में जाने के पक्षधर नहीं थे, मगर मां भवानी के पिता के घर जाने के उतावले पन को भांप कर उन्होंने पार्वाती जी को पिता के घर जाने से नहीं रोका। यज्ञ स्थल पर सती अपने पति के लिए स्थान ने देखकर क्रोध और अपमान की पीड़ा से व्याकुल हो उठीं और सती ने माता-पिता, ऋषि मुनियों तथा यज्ञ करने वाले पुरोहितों को कड़े शब्दों में फटकारा और कहा कि महादेव पर श्रद्धा के बिना यह यज्ञ स्थल उपद्रव का स्थान बन जाएगा। महादेव श्रद्धा के पात्र हैं, परमब्रह्म हैं तथा सबकी आत्मा है। उनमें श्रद्धा के बिना यह यज्ञ स्थल विपत्तियों का जनक होगा। यह राक्षसी यज्ञ माना जाएगा। इस प्रकार कठोर शब्द कहती हुई क्रोध से व्याकुल होकर सती हवन कुंड में कूद गईं।
सती के आत्मदाह की खबर जैसे ही शिवजी को मिली उनके क्रोध से भृकुटियां तक गईं और राजा दक्ष के यज्ञ को विध्वंस करने के लिए एक विशाल सेना भैरव तथा वीर बद्र के साथ भेजी। वीर बद्र ने समपूर्ण यज्ञ को तहस-नहस कर दिया तथा आमंत्रित राजाओं ऋषियों व पुरोहितों को भी मार डाला। यज्ञ स्थल पर युद्ध में इन्द्र देवता तथा भगवान विष्णु भी वीर भद्र से पराजित हो गए। वीर बद्र ने राजा दक्ष का शीश भी काट डाला। तब देवताओं द्वारा महादेव जी की स्तुति करके उन्हें शांत किया और भगवान शिव ने राजा दक्ष को बकरे का शीश लगाकर दोबारा जीवित कर दिया। जिससे यज्ञ संपूर्ण हो सका। इसके बाद मादेव जी सती के जले हुए शरीर को लेकर बिछोह के उन्माद में विचरण करने लगे। उके मोह को भंग करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के 52 टुकड़े कर डाले। जहां-जहां ये टुकड़े गिरे वे सभी स्थल शक्तिपीठ कहलाए। नयना देवी के स्थान पर सती के नयन गिरे थे। इसी प्रकार हरिद्वार में माया देवी के स्थान पर सती की नाभि गिरी थी। कामाख्या (असम) में योनि तथा हिगलाज ( पाकिस्तान) में सती का बाकी शरीर हिमाचल प्रदेश में नयना देवी के अतिरिक्त सती की जिन्हा ज्वाला मुखी में, चरण चिंतपूर्णी में तथा कांगड़ा स्थित व्रजेश्वरी देवी में सती के स्तन गिरे थे। नयना देवी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि लगभग 1240 वर्ष पहले चंद्रोही( राजस्थान) के राजा वीर चंद को स्वप्न में दिखाई दिया कि यदि वह इस स्थान पर देवीकी पूजा-अर्चना करेगा तो एक बड़े राज्य का राजा बनेगा।
अनेक कठिनाइयों के बावजूद राजा वीर चंद ने यह स्थान कोज निकाला और इस स्थान पर जहां नैना गूजर ने भगवती मां की नींव रखी थी पर मंदर का निर्माण करवाया। माता नयना देवी मंदिर के प्रांगण के आगे एक सैकड़ों वर्ष पुराना पीपल का पेड़ है जिसके बारे में अनेक दंत कथाएं प्रचलित हैं जिनमें से एक यह भी है कि अनेक अवसरों पर इस पीपल के हर पत्ते पर ज्योति जलती दिखाई देती है। माता नयना देवी के भवन के अंदर तीन मूर्तियां हैं जो दर्शनीय है। विशेषता उस अंदर वाली मूर्ति की मानी जाती है जिसके मात्र दो नयन ही दिखाई देते हैं।
मंदिर के साथ ही एक हवन कुण्ड भी बना हुआ है जिसकी विशेषता है कि इसमें डाली गई सारी सामग्री जल कर उसके बीच में ही समा जाती है टनों भस्म कहां जाती है यह आत तक रहस्य बना हुआ है। भवन से कुछ ही दूरी पर एक प्रचीन गुफा भी है। श्रद्धालुजन उसके भी श्रद्धा भाव से दर्शन करते हैं। भवन से 100 मीटर की दूरी पर एक सरोवर है जिसमें स्नान करना पुण्य माना जाता है। नयना देवी का मंदिर एक तिकोनी पर्वतमाला पर तारालय नाम की चोटी पर 3595 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इस पावन स्थल पर नयना देवी के वर्ष भर में तीन मेले चैत्र, श्रावण तथा असूज मास में लगते हैं। श्रावण मासे के मेले में सबसे अधिक संख्या पंजाब के श्रद्धालुओं की होती है।
गौरतलब है कि लनया देवी हिन्दू-सिखों का सांझा तीर्थ स्थान है। मंदिर के पुजारी के अनुसार माता नना देवी के मंदिर में श्रावण अष्टमी के मेले में साठ फीसदी सिख आते हैं। सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह ने माता नयना देवी के मंदिर में तपस्या की थी और एक साल से अधिक समय तक मंदिर के हवन कुंड में हवन किया था। एक साल से अधिक समय तक गुरू जी ने नयना देवी में तपस्या, हवन आदि किया तो मां भवानी ने स्वयं प्रकट होकर आशीर्वाद दिया और प्रसाद के रूप में तलवार भेंट की। 'ए वीर! तुम्हारी विजय होगी और इस धरती पर तुम्हारा पंथ सदैव चलता रहेगा। यह वारदान मां नयना देवी ने गुरू जी को दिया था। हवन आदि के बाद जब गुरू जी आनंदपुर साहब की ओर जाने लगे तो उन्होंने अपने तीर की नोंक से तांबे की एक प्लेट पर अपने पुरोहित को हुक्मनामा लिखकर दिया, जो आज भी नयना देवी के पंडित बांके बिहारी शर्मा के पास सुरक्षित है ।
कैसे पहुंचे नयना देवी
इस प्रकार नयना देवी हिंदू, सिखों का सांझा पूजा स्थल है। इस मंदिर में स्वामी कृष्णानंद द्वारा खोद-खोद कर बनाई 'नयना देवी गुफा' देखने योग्य है पहले श्रद्धालुओं को आनंदपुर साहब( पंजाब) से ही पैदल चलकर माता के दरबार तक जाना पड़ता था मगर अब यात्रा काफी आसान हो गई है। कीरतपुर साहब से बसें चलती थीं और वह भवन से दो किलोमीटर पीछे ज्यूना मोड़ की समाधि तक जाती थीं। अब यहां से ट्राली प्रणाली सुविधा शुरू हो चुकी है। जिससे यात्री गुफा के पास पहुंच जाते हैं। इसके अतिरिक्त अब आनंदपुर साहब के सीधे वाहन व मिनी बसें इत्यादि कौलों वाला टीबा होती हुईं ट्राली तक जाती हैं। यह सफर 18 किलोमीटर का है, जबकि अनेकों श्रद्धालु आज भी आनंदपुर साहब से और कुछ कौलां वाला टिबा से पैदल मंदिर द्वार तक चढ़ते हैं।
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